चक्रव्यूह मे घुसने से पहले
कौन था मैं और कैसा था
यह मुझे याद ही ना रहेगा
चक्रव्यूह मे घुसने के बाद
मेरे और चक्रव्यूह के बीच
सिर्फ़ एक जानलेवा निकटता थी
इसका मुझे पता ही न चलेगा
चक्रव्यूह से निकलने के बाद
मैं मुक्त हो जाऊँ भले ही
फ़िर भी चक्रव्यूह की रचना मे
फर्क ही ना पड़ेगा
मरुँ या मारू
मारा जाऊं या जान से मार दूँ
इसका फ़ैसला कभी ना हो पायेगा
सोया हुआ आदमी जब
नींद से उठ कर चलना शुरू करता हैं
तब सपनों का संसार उसे
दुबारा दिख ही नही पायेगा
उस रौशनी में जो निर्णय की रौशनी हैं
सब कुछ समान होगा क्या?
एक पलडे में नपुंसकता
एक पलडे में पौरुष
और ठीक तराजू के कांटे पर
अर्ध सत्य
Sunday, August 09, 2009
A beautiful poem from Govind Nihlani's 'Ardh Satya'
at 11:06 PM
Labels: beautiful poem, chaos, society
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